मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज के नेतृत्व में तप कल्याणक की हुई पूजा
महोत्सव में देश के विभिन्न राज्यों से लोग पहुंच रहे
रामगढ़। श्री 1008 जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्राण प्रतिष्ठा मोहत्सव के पांचवे दिन मुनि श्री 108 प्रमाण सागर जी महाराज के सानिध्य मे प्रतिष्ठाचार्य अभय भैया एवेम अशोक भैया के निर्देशन मे तप कल्याणक का पूजा अर्चना किया गया।
सुबहे 5:45. श्रीजी का जलाभिषेक एवेम शांतिधारा,सुबह 8:00बजे मुनि श्री द्वारा मंगल देशना,दोपहर 012.30 बजे -महराज नाभि राय का राज दरबार, युवराज आदि कुमार का राज्य अभिषेक, राज्य संचालन, राजा आओ द्वारा वेट सम्पन, सुंदरी शिक्षा, भरत बहुबली को राज्य सोपने, दीक्षा वन प्रस्थान, दीक्षा संस्कार विधि,संध्या 06बजे संखा समाधान,संध्या 07.15 बजे महाआरती एवेम शास्त्र प्रवचन,रात्रि 08बजे से संस्कृत कार्यक्रम आरंभ हुआ।
तप कल्याणक
अब तक के समस्त कार्य तो मनुष्य मात्र में कम-ज्यादा रूप में समान होते रहते हैं। किन्तु संसार की विरक्ति का कोई कारण बने बिना मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। यह भी तभी संभव है।जब मनुष्य के संस्कार चिंतन को सही दिशा में ले जाने की क्षमता रखते हों।
भगवान के कर्मयोगी जीवन, जिनमें सांसारिक कार्य, राज्य संचालन, परिवार संचालन आदि सम्मिलित होते हैं के बीच एक दिन उन्हें ध्यान आता है। भगवान चंद्रप्रभु के जीवन चरित्र के अनुसार आयु का इतना लंबा काल मैंने केवल सांसारिकता मंे ही खो दिया। अब तक मैंने संसार की सम्पदा का भोग किया। अब मुझे आत्मिक सम्पदा का भोग करना हैं। संसार का यह रूप, सम्पदाक्षणिक है, अस्थिर है।किन्तु आत्मा का रूप सम्पदा का भोग करना है। संसार का यह रूप, सम्पदाक्षणिक है, अस्थिर है, किन्तु आत्मा का रूप आलौकिक है, आत्मा की सम्पदा अनंत अक्षय है। मैं अब इसी के पुरूषार्थ जगाऊॅंगा।
इस प्रकार जब चंद्रप्रभु अपनी आत्मा को जागृत कर रहे थे, तभी लोकान्तिक देव आए और भगवान की स्तुति करके उनके विचारों की सराहना की। जरा देखें कि यहाॅं आत्मोन्नित के विचार को कोई है जो ठीक कह रहा है। उसे आचार्यों ने लोकान्तिक देव कहा और उसके हम ऐसा भी कह सकते हैं किसी गुणवान-विद्वान ने चन्द्रप्रभु महाराज को प्रेरक उद्बोधन दिया। यह तो बिल्कुल सम्भव है – इसे काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। आज भी प्रेरणा देने वालों और मैनेजमेंट गुरूओं की मान्यता है और बनी रहेगी।
चन्द्रप्रभु राजा थे – उन्होंने राज्य अपने पुत्र वरचन्द्र को सौंपा और पालकी में बैठकर जिसे बडे़-बडे़ लोगांे ने उठाया सर्वतुर्क वन में चल गए। वहाॅं उन्होंने दो दिन के उपवास का नियम लेकर जैनेन्द्री दीक्षा धारण कर ली। उन्होंने केशलुंचन किया और दिगम्बर मुद्रा में ध्यान मग्न हो गए। दो दिन के पश्चात वे नलिन नामक नगर में आहार के निमित्त पधारे। वहाॅं सोमदत्त राजा ने उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया। त्याग की यह प्रक्रिया स्वाभाविक है। आज भी सब कुछ त्याग कर समाजसेवी लोगांे की परंपरा है। क्यों वह त्यागी हुए? इसके भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं, पर ऐसा होता है।
इसके बाद चन्द्रप्रभु मुनि की तपस्या प्रारम्भ होती है। समस्त घातिया कर्मों को निर्मूल करने में चन्द्रप्रभु मुनि जैसी उच्च आत्मा को तीन माह लगे। वे पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पंचोद्रिय निग्रह, दशधर्म आदि में सावधान रहते हुए कर्मशत्रुओं से युद्ध करने में संलग्न रहने लगे। अन्त में वे दीक्षा वन मे नागवृक्ष के तीचे बेला का नियम लेकर ध्यान लीन हो गए और क्रमशः शुक्ल ध्यान के बल से मोहनीय कर्म का नाश करने में सफल हो गए। फिर बारहवें गुणस्थान के अन्त में द्वितीय शुक्ल ध्यान के प्रभाव में शेष तीन घातिया कर्मों का भी क्षय कर दिया। इसके साथ ही वे संयोग केवली हो गए। उनकी आत्मा अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान अनन्त सुख, अनन्त वीर्य से संपन्न हो गई। उन्हें पाॅंचोंलब्ध्यिों की उपलब्धि हो गई। अब वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गए। इंद्रों और देवों ने भगवान के केवल ज्ञान की पूजा की । उन्होंने समवशरण की रचना की और उसमें भगवान की प्रथम दिव्य ध्वनि खिरी।
भगवान समस्त देश में विहार करते हुए सम्मेद शिखर पर पहुॅंचे और वहाॅं 1 हजार मुनियों के साथ एक माह तक प्रतिमायोग धारण करके आरूढ हो गए। यह मोक्ष प्राप्ति के पूर्व की परमोच्च देह स्थिति है। यह तप की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है।
यहाॅं यह कहना ठीक होगा कि समवशरण में दिव्य ध्वनि का गुंजन हो। एक नज्जारा और होना चाहिए-वह है धर्मचक्र प्रवर्तन का। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण व महापुराण में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। उसका सारांश इस प्रकार है – भगवान का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है। भगवान के चरणों के नीचे देवलोग सहस्त्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं। और भगवान इनको स्पर्श न कर अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे-नगाड़े बजते हैं। पृथ्वी इति-भोति रहित हो जाती है। इन्द्र राजाओं के साथ आगे-आगे जयकार करते चलते हैं। आगे धर्मचक्र चलता है। मार्ग मंे सुन्दर क्रीडा स्थान बनाए जाते है। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामंडल, छत्र, चंवर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इन्द्र प्रतिहार बनता है। अनेकों निधियाॅं साथ-साथ चलती है। विरोधी जीव वैर विरोध भूल जाते हैं। अन्धे, बहरों को भी दिखने-सुनने लग जाते हैं। यह दृश्य जनसमूह देखकर भाव-विहल हो सकता है। यह भगवान के जननायक होने का सन्देश देता है।
पंचकल्याणक प्राण प्रतिष्ठा मोहत्सव मे इन्द्र इन्द्राणी बने का शोभाग्य सो धर्म इंद्र इन्द्राणी – दिलीप -सुनील आ चूड़ीवाल, भगवान के माता पिता – रमेश सरला सेठी, कुबेर – राजेंद्र -प्रिया पाटनी को मिला है।
श्री दिगंबर जैन समाज रामगढ़ के रमेश सेठी, मानिक जैन, ललित जैन सुनील छाबड़ा , राहुल जैन, संजय मिंटू
अमराओ देवी पाटनी, किरण पाटनी, पुष्पा चूड़ीवाल,अनीता चूड़ीवाल,मीना पाटनी, उषा पाटनी, शारदा अजमेरा, पुष्पा अजमेरा, नम्रता अजमेरा, लता रावका, शीतल सेठी, मनोरमा पाटनी, प्रेम काला, वीना बागरा, मनीषा पाटनी, सुनीता चूड़ीवाल, ममता गंगवाल, पिंकी गंगवाल, उषा सेठी, चांदनी सेठी, सुनीता छाबड़ा, सुधा सेठी, सरोज पंड्या, अरुणा जैन, मिथलेश जैन,बबिता सेठी, रिद्धि पाटनी, नीलम अजमेरा,सपना पाटनी, रेखा जैन, गिनया देवी, सुनीता जैन, अनीता सेठी, निशा सेठी, रूचि चूड़ीवाल आदि लोगों ने सहयोग किया।