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खूंटी में भाजपा के किले में क्या कांग्रेस लगा पाएगी सेंध ?

खूंटी l लोकसभा चुनाव में झारखंड की सबसे हॉट सीट बन चुकी खूंटी का राजनीतिक तापमान मौसम के समान ही लगातार बढ़ रहा है। एक ओर जहां भाजपा के समक्ष अपने परंपरागत किले को बचाये रखने की चुनौती है, तो कांग्रेस के समक्ष साख बचाने और लगातार हार के कलंक को धोने की चुनौती है। जनजातियों के लिए सुरक्षित खूंटी संसदीय सीट पर अब तक हुए 17 संसदीय चुनाव में भाजपा को सर्वाधिक जीत भाजपा ने ही हासिल की है। पद्मभूषण कड़िया मुंडा आठ बार इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। अर्जुन मुंडा वर्तमान सांसद और केंद्रीय मंत्री हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में अर्जुन मुंडा ने कांग्रेस के कालीचरण मुंडा को मात्र 1445 मतों के अंतर से पराजित किया था। इस बार भी दोंनों प्रतिद्वंद्वी आमने सामने हैं। खूंटी सीट से अब तक कांगेस को सिर्फ तीन बार ही जीत नसीब हुई है 1967 में जयपाल सिंह मुंडा, 1984 में साइमन तिग्गा और 2004 में सुशीला केरकेट्टा ही कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंच सके हैं। पांच बार झारखंड पार्टी को भी खूंटी संसदीय क्षेत्र का मौका मिल चुका है।

छोटे दल और निर्दलीय बिगाड़ सकते हैं बड़ी पार्टियों का खेल

आसन्न लोकसभा चुनाव में खूंटी संसदीय से भाजपा, कांग्रेस, झारखंड पार्टी सहित सात दलीय-निर्दलीय प्रत्याशी भाग्य आजमा रहे हैं। जानकार मानते हैं कि अभी तक भाजपा और कांग्रेस कें बीच ही मुख्य मुकाबला नजर आ रहा था, लेकिन झारखंड पार्टी कें अलावा अन्य छोटे दल और निर्दलीय उम्मीदवार बड़ी पार्टियों का खेल बिगाड़ सकते हैं। एक ओर जहां भाजपा को हिंदू मतदाताओं और सरना समाज पर पूरा भरोसा है, वहीं कांग्रेस को अपने कैडर वोट के अलावा ईसाई और मुस्लिम मतदाताओं पर विश्वास है। खूंटी की राजनीति की परख रखनेवाले बताते हैं कि बहुजन समाज पार्टी की सावित्री देवी भाजपा को नुकसान पहुंचा सकती हैं।
वहीं झारखंड पार्टी की अपर्णा हंस और निर्दलीय उम्मीदवार बसंत कुमार लोगा ईसाई मतों में सेंधमारी कर सकते हैं। इसका नुकसान कांग्रेस को हो सकता है। वैसे अपर्णा हंस काफी दमदार उम्मीदवार मानी जा रही है। ईसाई समुदाय में उनकी काफी अच्छी पकड़ बताई जाती है। बसंत लोंगा झामुमो के पूर्व विधायक रह चुके हैं और उनकी भी क्षेत्र में अच्छी-खासी लोकप्रियता है। पत्थलगड़ी की नेत्री रह चुकी बबीता कच्छप भी पूरे दमखम के साथ चुनाव मैदान मे हैं। अब देखना है कि ये दीलय और निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव परिणाम को किस हद क प्रभावित कर सकते हैं।